नई दिल्ली । जनवरी 2019 में, दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन कर पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने अप्रैल मई 2019 के लोकसभा चुनावों को विचारधाराओं की लड़ाई करार देकर कहा था कि इसमें पार्टी की हार से गुलामी हो सकती है, इसकी तुलना 18वीं शताब्दी में पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद हुई, जिसमें मराठे हार गए, जिससे अंततः ब्रिटिश शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ। उस चुनाव में भाजपा ने प्रचंड बहुमत से जीत हासिल की और नरेंद्र मोदी लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बने। पांच साल बाद, पिछले शुक्रवार को, पीएम मोदी ने घोषणा की कि वह 22 जनवरी को अयोध्या में होने वाले राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के लिए खुद को तैयार करने के लिए 11 दिनों का विशेष अनुष्ठान कर रहे हैं।
भाजपा और संघ परिवार की ओर से वर्तमान में राम मंदिर के उद्घाटन का प्रचार प्रसार जमकर किया जा रहा है। यह न सिर्फ 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा के प्रचार का बिगुल बजाएगा बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तौर पर उसके एजेंडे को एक बार फिर से प्रमुखता के साथ लोगों के बीच रखेगा। कहीं ना कहीं पूरे अभियान का नेतृत्व इस बार भी प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं। इस वजह से भाजपा को विपक्ष को बैकफुट पर धकेलने का बड़ा मौका भी मिल गया है। विपक्षी दल जहां आज भी मोदी सरकार को घेरने के लिए मुद्दों का चयन कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर भाजपा अपने एजेंडे को जमीन पर उतरने की कोशिश में लगी हुई है।
हिंदी पट्टी के राज्यों में भाजपा इस मुद्दे को पूरी तरीके से एक अलग धार दे रही है। साथ ही बताने की कोशिश कर रही है कि विपक्ष को राम मंदिर से दिक्कत हो रही है। भाजपा की ओर से खुले तौर पर इस बात को स्वीकार किया जा रहा है कि चुनाव में उनके तीन प्रमुख मुद्दों में हिंदुत्व, विकास और वैश्विक मंच पर भारत की प्रतिष्ठा रहने वाली है, जिए पीएम मोदी जी ने बढ़ाया है। विपक्ष के लिए एक संकट भी है कि हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजे ने यह साबित कर दिया है कि जातीय जनगणना का मुद्दा उस उत्तर भारत में खास सफलता दिलाने में मददगार साबित नहीं हो सका है। इसके पहले कांग्रेस का नरम हिंदुत्व भी पूरी तरीके से विफल हो गया है। दूसरी ओर मोदी की सोशल इंजीनियरिंग और उनकी गारंटी भाजपा के पक्ष में सीधे तौर पर जाती हुई दिखाई दे रही है।
राज्य के ये नतीजे न केवल यह संकेत देते हैं कि जाति अब प्रमुख चुनावी कारक नहीं रह गई है, बल्कि यह भी है कि मतदाता मोदी के विकास मॉडल पर भरोसा करते हैं। एक संगठन के रूप में भाजपा मोदी के संदेशों की वाहक और उनकी लोकप्रियता की लाभार्थी बन गई है। विभिन्न क्षेत्रों में कई भाजपा नेताओं ने स्वीकार किया कि मतदाता उस पार्टी को नहीं, बल्कि मोदी को वोट दे रहे थे। इसलिए, भाजपा को उन्हें अपने वफादार समर्थन आधार के रूप में बदलने के लिए अपने संगठनात्मक प्रयासों को बढ़ाना होगा। इसलिए चुनाव में विपक्ष के सामने बड़ी चुनौती मोदी की हिंदुत्व आइकन के रूप में धारणा का मुकाबला करना होगा, जिन्होंने हिंदुओं को अपना गौरव व्यक्त करने के लिए एक मंच प्रदान किया है।
हालाँकि विहिप और आरएसएस के नेतृत्व में राम जन्मभूमि आंदोलन ने राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया, लेकिन अब मोदी निर्विवाद रूप से अयोध्या में समारोह के केंद्र में हैं, भाजपा ने इस मोदी कार्यक्रम बनाने के लिए अपनी पूरी ताकत और संसाधन लगा दिए हैं। राज्य और धर्म के बारे में प्रश्न अब निरर्थक प्रतीत होते हैं, क्योंकि राज्य धार्मिक समारोह में नेतृत्व कर रहा है, और इसकी औपचारिक और अनौपचारिक संरचनाएँ प्रधान मंत्री के पीछे लामबंद हो रही हैं। राजनीति और सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों की इस वेल्डिंग को पहले किसी भी प्रधानमंत्री द्वारा इस हद तक अलग-अलग कारणों से नहीं खोजा गया था, या प्रयास नहीं किया गया था। यह न सिर्फ विपक्ष के लिए चुनौती होगी बल्कि भावी प्रधानमंत्रियों के लिए भी सवाल खड़ा कर सकती है।